उत्सव में शामिल होने देवलोक से आते हैं देवी-देवता, Kullu Dussehra कैसे बना अंतरराष्ट्रीय

Kullu Dussehra अंतरराष्ट्रीय कुल्लू दशहरा काफी प्रसिद्ध त्योहारों में से एक है। जब बाकी देश के हिस्सों में दशहरा का त्योहार खत्म हो जाता है तब जाकर यह कुल्लू में एक सप्ताह के लिए शुरू होता है। यहां के लोगों का कहना है कि धूमधाम से मनाए जाने वाले इस उत्सव में देवी-देवता शामिल होते हैं।
शिमला। दशहरा भारत के महत्वपूर्ण त्योहार में से एक माना जाता है। यह शारदीय नवरात्र के बाद अक्टूबर महीने में आता है। खासतौर पर कुल्लू में इस त्योहार के समय लोगों में काफी उत्साह दिखाई देता है। यहां करीब एक हफ्ते तक अंतरराष्ट्रीय कुल्लू दशहरा (International Kullu Dussehra) मनाया जाता है। आइए जानते है इसकी कुछ रहस्यमयी बातें।
परंपरा के पीछे क्या है राज?
कुल्ल दशहरा देश के बाकी त्योहार से एकदम अलग है। इसे अंतरराष्ट्रीय उत्सव का दर्जा दिया गया है। जब बाकी देश के हिस्सों में दशहरा का त्योहार खत्म हो जाता है, तब जाकर यह कुल्लू में एक सप्ताह के लिए शुरू होता है। इस परंपरा के पीछे भी राज छुपा हुआ है। 17वीं शताब्दी में राजा जगत सिंह अयोध्या से भगवान रघुनाथ की एक मूर्ति अपने साथ कुल्लू ले आए थे, फिर उन्होंने उस मूर्ति को कुल्लू के महल मंदिर में स्थापित कर दी थी।
क्या सच में आते हैं देवी-देवता?
लोगों का मानना है कि धूमधाम से मनाए जाने वाले इस उत्सव में करीब 300 देवी-देवता भाग लेने आते हैं। साथ ही श्री रघुनाथ भगवान को अपनी श्रद्धा अर्पित करते हैं। दशहरा का यह उत्सव माता हडिम्बा के आगमन से शुरू होता है। उत्सव के दौरान अलग-अलग राज्यों के सांस्कृतिक दल और विदेशों से लोक नर्तक अपनी अद्भुत प्रस्तुतियां प्रस्तुत करते हैं। इस दौरान यहां उत्सव में भाग लेने देश और विदेश से भारी संख्या में पर्यटक आते हैं।
क्या है कुल्लू दशहरा का इतिहास?
कुल्लू दशहरा का इतिहास साढ़े तीन सौ वर्ष से अधिक पुराना है। कहा जाता है कि राजा जगत सिंह के शासनकाल में मणिकर्ण घाटी के गांव टिप्परी में एक गरीब ब्राह्मण रहता था। उस गरीब ब्राह्मण ने राजा जगत सिंह की किसी गलतफहमी के कारण आत्मदाह कर लिया था। ब्राह्मण के इस आत्मदाह का दोष राजा पर लगा, जिसकी वजह से राजा को एक असाध्य रोग भी हो गया था।
वहीं असाध्य रोग से ग्रसित राजा को एक बाबा ने सलाह दी कि अगर वह अयोध्या के त्रेतानाथ मंदिर से भगवान राम, माता सीता और हनुमान जी की मूर्ति लाएं और अपना सारा राज-पाठ भगवान रघुनाथ को सौंप दें तो उन्हें इस दोष से मुक्ति मिल जाएगी। इसके बाद राजा ने 1653 में रघुनाथ जी की प्रतिमा को मणिकर्ण मंदिर में रखा और वर्ष 1660 में इसे पूरे विधि-विधान से कुल्लू के रघुनाथ मंदिर में स्थापित किया गया था। कहा जाता है कि इसके बाद राजा को अपने दोष से मुक्ति मिल गई। श्री रघुनाथ जी के सम्मान में ही राजा जगत सिंह ने वर्ष 1660 में कुल्लू में दशहरे की परंपरा आरंभ की। आज भी यह परंपरा जीवित है।
पार्किंग प्लान
अंतरराष्ट्रीय दशहरा उत्सव कुल्लू (International Kullu Dussehra) में सात दिन तक हजारों वाहनों को सुरक्षित स्थानों पर पार्क करने के लिए जिला प्रशासन विभिन्न स्थानों पर पार्किंग स्थल चिह्नित करता है। इस बार यातायात को सुचारु बनाए रखने तथा वाहनों को खड़ा करने के लिए पर्याप्त जगह उपलब्ध करवाने के लिए जिला प्रशासन ने 18 पार्किंग स्थल चिह्नित और 2000 वाहनों को पार्क करने की व्यवस्था की है।